
शाकंभरी देवी कौन है? इन्होने दुर्गमासुर का वध कैसे किया?
महाभारत के वनपर्व के अनुसार शाकम्भरी देवी ने शिवालिक पहाडियों मे सौं वर्ष तक तप किया था महीने के अंतराल मे एक बार शाकाहारी भोजन का आहार करती थी। उनकी कीर्ति सुनकर ऋषि- मुनि उनके दर्शन को आये। देवी ने उनका स्वागत भी शाक से ही किया तभी वह शाकंभरी के नाम से जाने जाने लगी । इसका अर्थ यह है की देवी केवल शाकाहारी भोजन का भोग ही ग्रहण करती है।
स्कंदपुराण के अनुसार यमुना के पूर्व भाग में सूर्य कुंड है यहां पर विष्णु कुण्ड और बाणगंगा सरीखें तीर्थ विराजमान है। पूर्व काल में यहां भगवान विष्णु ने रुद्र को प्रसन्न करने के लिए तप किया था। इसके दक्षिण भाग में शाकम्भरी देवी विराजमान है जो श्रेष्ठ और सर्व कामेश्वरी हैं। यहां पर शाकेश्वर महादेव प्रत्यक्ष सिद्धिदायक हैं। प्राचीन काल में 100 वर्षों वाले अकाल या युद्ध में अपने अंगों से उत्पन्न विशेष प्रकार के शाक द्वारा देवी ने भरण पोषण कराया था। इसलिए वे शाकंभरी के नाम से विख्यात हुई यह देवी प्रत्यक्ष सिद्धिदात्री और दर्शन से ही पाप नाश करने वाली हैं।
एक अन्य दंत कथा के अनुसार पार्वतीजी ने शिवजी को पाने के लिए कठोर तपस्या की। उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया था तथा जीवित रहने के लिए केवल शाक सब्जियां ही खाईं। इसलिए उनका नाम शाकंभरी रखा गया।
देवी भागवत के अनुसार जब पृथ्वी पर सौ वर्षों तक वर्षा नहीं हुई, तब मनुष्यों को कष्ट उठाते देख मुनियों ने मां से प्रार्थना की। तब शाकम्भरी के रूप में माता ने अपने शरीर से उत्पन्न हुए शाकों के द्वारा ही संसार का भरण-पोषण किया था। इस तरह देवी ने सृष्टि को नष्ट होने से बचाया |
एक अन्य दंत कथा के अनुसार जहाँ आज शाकंभरी देवी जी का शक्तिपीठ है पूर्वकाल मे यह इस स्थान से लगभग ८ किमी दूर शिवालिक पर्वत के शिखर पर था । घने जंगल और ऊंचे पहाड़ तथा दुर्गम रास्ता पार करना भक्तों के लिए दुष्कर था कालांतर मे यहाँ आदि शंकराचार्य जी आये और वर्तमान मंदिर की स्थापना उनके द्वारा ही हुई कहा जाता है मंदिर मे स्थापित भीमा, भ्रामरी और शताक्षी देवी के विग्रह उन्होंने ही स्थापित कराये थे उसके पश्चात वे हरिद्वार के रास्ते श्री बद्री केदार चले गए।
शाकम्भरी देवी और दुर्गमासुर की कथा
देवी पुराण,शिव पुराण और धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार हिरण्याक्ष के वंश मे एक महादैत्य रूरु था। रूरु का एक पुत्र हुआ दुर्गम। दुर्गमासुर ने ब्रह्मा जी की तपस्या करके चारों वेदों को अपने अधीन कर लिया। वेदों के ना रहने से समस्त क्रियाएँ लुप्त हो गयी। ब्राह्मणों ने अपना धर्म त्याग कर दिया। चौतरफा हाहाकार मच गया। ब्राह्मणों के धर्म विहीन होने से यज्ञादि अनुष्ठान बंद हो गये और देवताओं की शक्ति भी क्षीण होने लगी। जिसके कारण एक भयंकर अकाल पड़ा। किसी भी प्राणी को जल नही मिला जल के अभाव मे वनस्पति भी सूख गयी। अतः भूख और प्यास से समस्त जीव मरने लगे। दुर्गमासुर की देवों से भयंकर लडाई हुई जिसमें देवताओं की हार हुई अत: दुर्गमासुर के अत्याचारों से पीडि़त देवतागण शिवालिक पर्वतमालाओं में छिप गये तथा जगदम्बा का ध्यान, जप,पुजन और स्तुति करने लगे ।
उनके द्वारा जगदम्बा की स्तुति करने पर महामाया माँ पार्वती जो महेशानी,भुवनेश्वरि नामों से प्रसिद्ध है आयोनिजा(जिसके कोई माता-पिता ना हो) रूप मे इसी स्थल पर प्रकट हुई। समस्त सृष्टि की दुर्दशा देख जगदम्बा का ह्रदय पसीज गया और उनकी आंखों से आंसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी। माँ के शरीर पर सौं नैत्र प्रकट हुए। शत नैना देवी की कृपा से संसार मे महान वृष्टि हुई और नदी- तालाब जल से भर गये। देवताओं ने उस समय माँ की शताक्षी देवी नाम से आराधना की। शताक्षी देवी ने एक दिव्य सौम्य स्वरूप धारण किया। चतुर्भुजी माँ कमलासन पर विराजमान थी। अपने हाथों मे कमल, बाण, शाक- फल और एक तेजस्वी धनुष धारण किये हुए थी। भगवती परमेश्वरी ने अपने शरीर से अनेकों शाक प्रकट किये। जिनको खाकर संसार की क्षुधा शांत हुई। माता ने पहाड़ पर दृष्टि डाली तो सर्वप्रथम सराल नामक कंदमूल की उत्पत्ति हुई ।
इसी दिव्य रूप में माँ शाकम्भरी देवी के नाम से पूजित हुई। तत्पश्चात् वह दुर्गमासुर को रिझाने के लिये सुंदर रूप धारण कर शिवालिक पहाड़ी पर आसन लगाकर बैठ गयीं। जब असुरों ने पहाड़ी पर बैठी जगदम्बा को देखा तो उनकों पकडने के विचार से आये। स्वयं दुर्गमासुर भी आया तब देवी ने पृथ्वी और स्वर्ग के बाहर एक घेरा बना दिया और स्वयं उसके बाहर खडी हो गयी। दुर्गमासुर के साथ देवी का घोर युद्ध हुआ अंत मे दुर्गमासुर मारा गया। इसी स्थल पर मां जगदम्बा ने दुर्गमासुर तथा अन्य दैत्यों का संहार किया व भक्त भूरेदेव(भैरव का एक रूप) को अमरत्व का आशीर्वाद दिया।माँ की असीम अनुकम्पा से वर्तमान में भी सर्वप्रथम उपासक भूरेदेव के दर्शन करते हैं तत्पश्चात पथरीले रास्ते से गुजरते हुये मां शाकम्भरी देवी के दर्शन हेतु जाते हैं।
जिस स्थल पर माता ने दुर्गमासुर नामक राक्षस का वध किया था वहाँ अब वीरखेत का मैदान है। जहाँ पर माता सुंदर रूप बनाकर पहाड़ी की शिखा पर बैठ गयी थी वहाँ पर माँ शाकम्भरी देवी का भवन है। जिस स्थान पर माँ ने भूरा देव को अमरत्व का वरदान दिया था वहाँ पर बाबा भुरादेव का मंदिर है। प्राकृतिक सौंदर्य व हरी- भरी घाटी से परिपूर्ण यह क्षेत्र उपासक का मन मोह लेता है। देवीपुराण के अनुसार शताक्षी, शाकम्भरी व दुर्गा एक ही देवी के नाम हैं।
That was the story of Shakambhari Devi. She is also known as Shatakshi Mata.